रविवार, मई 08, 2005

परिचय

guru
01 जुलाई 1942 को ग्राम गनेरा जिला- होशंगाबाद में जन्में गिरिमोहन गुरु शिक्षा विभाग में लम्बे समय तक शिक्षक रहे हैं। हिन्दी साहित्य के प्रचार प्रसार में बढ़—चढ़कर भाग लेने वाले श्री गुरु होशंगाबाद में नगर श्री के नाम से जाने जाते हैं। देश भर की पत्र–पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं का अनवरत प्रकाशन होता रहता है। आपने अनेक विधाओं में काव्य सृजन किया है परन्तु नवगीत में आपकी विशेष अभिरुचि है। मंच संचालन एवं संयोजन की दिशा में आप सिद्धहस्त हैं। कलमकार परिषद् भोपाल ने आपके व्यक्तित्व व कृतित्व पर पुस्तक प्रकाशित की है– संवेदना और शिल्प
आपके प्रकाशित संग्रह हैं—
*मुझे नर्मदा कहो नवगीत संग्रह
*गजल का दूसरा किनारा गजल संग्रह
*राग—अनुराग
*बाल रामायण
*बालबोधिनी

*** विश्वजाल पत्रिका अनुभूति पर हिन्दी के १०० सर्वश्रेष्ठ गीतों में सम्मिलित

सम्पर्क सूत्र-
गोस्वामी सेवाश्रम,
श्री नर्मदा मन्दिरम् आवासीय मंडल उपनिवेशिका
होशंगाबाद (म.प्र.) 461001
दूरभाष—

मुक्तक

दर्द है फिर भी दिलासा मिल रही है
जिन्दगी को एक आशा मिल रही है
हर थपेड़ों से गुजर जाऊँगा मैं
प्यार की हर ओर भाषा मिल रही है

***

- गिरिमोहन गुरु

नवगीत

  • सभा थाल

नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।
सभा थाल ने मुझे हमेशा
लिया जली रोटी–सा
शतरंजी जीवन का अभिनय
पिटी हुई गोटी–सा
सदा रहा लहरों के दृग में
हो न सका तट का
नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।
छप्पर जैसी देह स्नेह में
लेकिन मन मुरलीधर
रहना पड़ा किन्तु जीवन में
मुझे सुदामा बन कर
पनघट ने खुद कहा नहीं कुछ
मूल्य रहा घट का
नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।

****

  • पत्ते पीत हुए

नीमों से झर गई निबोली
पत्ते पीत हुए ।
जब से छिनी मुड़ेर कि कागा
भूल गया सब काँव
जैसे विदा हुई बेटी को
मिले पराया गाँव
आने वाले क्षण हर खुशियों से
भयभीत हुए ।
विधवा की साधों का काजल
आँखें फोड़ रहा
परिस्थितियों का हाथ
अहम् की बाँह मरोड़ रहा
प्राण वंत आँधी के सम्मुख
पुनः विनीत हुए।

***


- गिरिमोहन गुरु

नवगीत

  • बूँदों के गहने
ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया.........।।
मौसम ने धूप दी उतार
पहन लिये बूँदों के गहने
खेतों में झोंपड़ी बना
कहीं कहीं घास लगी रहने
बिन पिये तृषित पपीहा
कह उठा पिया पिया पिया
ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया......... ।।
झींगुर के सामूहिक स्वर
रातों के होंठ लगे छूने
दादुर के बच्चों के शोर
तोड़ रहे सन्नाटे सूने
करुणा प्लावित हुई धरा
अम्बर ने क्या नहीं दिया
ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया......... ।।
---000--


  • मंगल कलश दिया माटी के

मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
हरे हरे पत्तों वाले मण्डप की छाँव नहीं
यह सम्पन्न शहर है निर्धनता का गाँव नहीं
प्लेटें चमक रही हैं
निष्कासित पत्ते दोने
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
गोबर के गनेश हल्दी, रोचन वाली थाली
कोकिल बैनी वामाओं के गीत और गाली
मंत्रोच्चार आदि, मानव को
भार लगे होने
मंगल कलश दिया माटी के

ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक झुक
खड़ा–भोज ही बड़ा भोज कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चमी स्वप्न में
स्यात लगे खोने
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।

--000--

- गिरिमोहन गुरु

नवगीत

उमस का गाँव

लू की नदी किनारे पर है
एक उमस का गाँव ।।
पानी का अभाव जैसे
सच्चाई का व्यवहार
स्वेद बहुत सस्ता जैसे
हो रिश्वत का बाजार
सभी कह रहे बालू में ही
खींचो अपनी नाव ।।
कुएँ हुए अंधे जैसे हों
चौपालों का न्याय
अन्धड़ जैसे चले गाँव में
मुखिया जी की राय
पवन कि जैसे भोले–भालों
का न कहीं पर ठाँव ।
लू की नदी किनारे पर है
एक उमस का गाँव ।।
***


कामना की रेत

जून की तपती किरन–सा
मन
आहटों से भी उफनता
मिल रहा संकेत
भुंज रही है भाड़–सी
उर–कामना की रेत
ज्यों दुपहरी भर रखा हो धूप में
बर्तन
फूल पत्तों को न बाँटे आ रहा
जो दे रहा है मूल
साहसी छाता तना है शीश पर
लेकिन फिजूल
आँसती है साँझ को भी धूप की
खुरचन ।
***
-गिरिमोहन गुरु

शनिवार, मई 07, 2005

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