रविवार, मई 08, 2005

नवगीत

  • सभा थाल

नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।
सभा थाल ने मुझे हमेशा
लिया जली रोटी–सा
शतरंजी जीवन का अभिनय
पिटी हुई गोटी–सा
सदा रहा लहरों के दृग में
हो न सका तट का
नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।
छप्पर जैसी देह स्नेह में
लेकिन मन मुरलीधर
रहना पड़ा किन्तु जीवन में
मुझे सुदामा बन कर
पनघट ने खुद कहा नहीं कुछ
मूल्य रहा घट का
नभ से गिरा ताड़ में अटका
व्यर्थ रहा भटका.......।।

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  • पत्ते पीत हुए

नीमों से झर गई निबोली
पत्ते पीत हुए ।
जब से छिनी मुड़ेर कि कागा
भूल गया सब काँव
जैसे विदा हुई बेटी को
मिले पराया गाँव
आने वाले क्षण हर खुशियों से
भयभीत हुए ।
विधवा की साधों का काजल
आँखें फोड़ रहा
परिस्थितियों का हाथ
अहम् की बाँह मरोड़ रहा
प्राण वंत आँधी के सम्मुख
पुनः विनीत हुए।

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- गिरिमोहन गुरु