नवगीत
- बूँदों के गहने
मेघ डाकिया.........।।
मौसम ने धूप दी उतार
पहन लिये बूँदों के गहने
खेतों में झोंपड़ी बना
कहीं कहीं घास लगी रहने
बिन पिये तृषित पपीहा
कह उठा पिया पिया पिया
ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया......... ।।
झींगुर के सामूहिक स्वर
रातों के होंठ लगे छूने
दादुर के बच्चों के शोर
तोड़ रहे सन्नाटे सूने
करुणा प्लावित हुई धरा
अम्बर ने क्या नहीं दिया
ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया......... ।।
---000--
- मंगल कलश दिया माटी के
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
हरे हरे पत्तों वाले मण्डप की छाँव नहीं
यह सम्पन्न शहर है निर्धनता का गाँव नहीं
प्लेटें चमक रही हैं
निष्कासित पत्ते दोने
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
गोबर के गनेश हल्दी, रोचन वाली थाली
कोकिल बैनी वामाओं के गीत और गाली
मंत्रोच्चार आदि, मानव को
भार लगे होने
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक झुक
खड़ा–भोज ही बड़ा भोज कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चमी स्वप्न में
स्यात लगे खोने
मंगल कलश दिया माटी के
ढ़ूँढ़ रहे कोने ...........।।
--000--
- गिरिमोहन गुरु
0 Comments:
एक टिप्पणी भेजें
<< Home